
गर जहां खड़े हों – वहीं घर हो ,
दिल के कमरे में साफ – सफाई कर , सोफ़ा लगा सुस्ता लें ,
थोड़े गुलदस्ते सजा लें ,
बेफिक्र फिर कमरे से बाहर झांके ,
हवाएं हमें नहीं ज़रा हम हवाओं को छेड़े ,
लेकिन जहां खड़े हों – घर वहीं हो ,
जब अपना आशियाना अपने दिल में ही बना लें ,
तो क्या मज़ाल कि कभी बेघर सा लगे !
.
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वरना …
.
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चार दीवारें खड़ी करके ,
उसपर छप्पर धर दो तो उसे घर नहीं कहते …
‘ दिल ‘
यही वो plot है जहां मकान बनाना expected है .. जहां सुकून वहीं ‘ घर ‘ ..
ऐसा हो तो कैसा हो ?
अपने दिल में ही रहें ,
ना ज़रूरत ईंट – गारे में सनकर ज़मीनों को बांटने की ,
ना ज़रूरत रिश्तों का चूरन बना धूल फांकने की ।
ऐसा हो तो कैसा हो ?
अपने दिल में ही रहें !!
❤️ आत्म – प्रेम कहते हैं इसे ❤️
✒️Madhuri Mishr
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